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9/22/2010

राष्ट्रमंडल खेल तमाशे की तरह लगते हैं-हिन्दी लेख (commanwelth game in newdelhi-hindi article)

दिल्ली में होने वाले कॉमनवैल्थ तमाम कारणों से चर्चा में है। जिस तरह वहां निर्माण कार्य हुआ है और तैयारी चल रही है उससे विदेशों से आये प्रतिनिधिमंडल संतुष्ट नहीं है तो भारत में अनेक खेल विशेषज्ञ तमाम तरह के सवाल उठा रहे हैं। बहरहाल हम यहां कॉमनवैल्थ खेलों के महत्व की ही चर्चा करेंगे जिसको बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है।
देश में खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों की कमी नहीं है। दुनियां के प्रसिद्ध खेलों के -फुटबाल, क्रिकेट, शतरंज, टेनिस, टेबल टेनिस, बैटमिंटन तथा हॉकी-प्रशंसकों की यहां भरमार है। इसके अलावा भी कम लोकप्रिय खेलों में भी दिलचस्पी है। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि बहुत कम खेल प्रेमी हैं जिनकी दिलचस्पी राष्ट्रमंडल खेलों में होगी। दिल्ली में खेल होंगे इसलिये भारत के प्रचार माध्यम-टीवी चैनल, रेडियो तथा अखबार-इसका प्रचार खूब करेंगे पर यकीनन दर्शकों की दिलचस्पी उनमें कम ही होगी। भारत में अगर विज्ञापन और प्रायोजक कंपनियों को ध्यान रखने की बजाय आम दर्शक और पाठक को देखकर कार्यक्रमों का प्रसारण तथा समाचार का प्रकाशन हो तो संभव है कि कोई माध्यम इनको प्रसारित करने का जोखिम नहीं उठायेगा। लोगों के पास मनोरंजन के साधन अधिक हैं पर उनकी रुचियां सीमित हैं इसलिये ही क्रिकेट जैसे खेल को देखते हैं पर उनकी संख्या बहुत कम है। सच तो यह है कि क्रिकेट अब जिंदा ही विज्ञापन तथा कंपनियों की वजह से है।
इसके अलावा हम भारतीयों की आदत है कि कोई भी द्वंद्व तो देखने में रुचि तो रखते हैं पर महारथियों का स्तर भी देखना नहीं भूलते। इसलिये खेल की दुनियां में महारथ रखने वाले अमेरिका, चीन, सोवियत संघ, जापान तथा जर्मनी जैसे राष्ट्रों की अनुपस्थिति इन खेलों का महत्व स्वाभाविक रूप से कम कर देती है। दूसरी बात यह भी है कि राष्ट्रवादी खेल प्रेमियों के लिये कॉमनवैल्थ खेलों का आयोजन करता तो दूर की बात इनमें शामिल होना भी अंग्रेजों की गुलामी ढोने जैसा है क्योंकि इसमें केवल वही देश शामिल होते हैं जो कभी ब्रिटेन के गुलाम रहे हैं। जो लोग इन खेलों के आयोजन से विश्व में भारतीय की छबि अच्छी होने के दावे कर रहे हैं उन्हें यह बात याद रखना चाहिए कि गुलाम की कभी छबि अच्छी नहीं होती। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय क्रिकेट खेल इसमें शामिल नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत अच्छे पदक जीतेगा पर इससे भारतीय खेलप्रेमी ओलंपिक में अपने देश की स्थिति को भुला नहीं सकते जहां एक स्वर्ण पदक जीतने के बाद दूसरा नसीब नहीं हुआ और कांस्य या रजत पदक के टोटे पड़ गये। दूसरी बात यह है कि जो राष्ट्रमंडल के आयोजन से देश में खेल तथा खिलाड़ियों के विकास की बात कर रहे हैं वह यह भी बता दें कि पिछले आयोजन के बाद कितना विकास हुआ? उल्टे पाकिस्तानी ने हॉकी में इतनी बुरी शिकस्त दी कि उसकी कड़वी यादें भुलाने में भी समय लगा। कॉमनवैल्थ के दौरान ही अगर कोई बीसीसीआई की टीम कहीं क्रिकेट मैच खेलती हो तो फिर शायद प्रचार माध्यम भी इसे महत्व न दें।
जहां तक खेलों के विकास की बात है तो वह पैसे खर्च कर नहीं  आता। देश का इतना पैसा इन खेलों पर खर्च हो रहा है पर इससे उनमें विकास होगा यह सोचना भी बेकार है क्योंकि इधर अपने देश के ही खिलाड़ी धनाभाव की शिकायत कर रहे हैं। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाये बगैर कभी खेलों का विकास नहीं हो सकता। यह सही है कि पैसा सब कुछ नहीं होता पर वह आदमी में आत्मविश्वास का पैदा करने वाला एक बहुत बड़ा तत्व है।
कहने का मतलब यह है कि इन खेलों का आयोजन भारत में हो या बाहर भारतीय खेल प्रेमियों की इनमें दिलचस्पी कम ही है। इसलिये यह आशा करना ही व्यर्थ है कि इससे खेलों का विकास होगा या खिलाड़ियों का मनोबल ऊंचा उठेगा। यह पता नहीं बाकी देशों में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों की क्या स्थिति रहती है पर अपने देश के खेल प्रेमी इसमें यही सोचकर शामिल होंगे कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। कहने का मतलब यह कि उनमें परायेपन का ऐसा बोध रहेगा। इस बात को वही आदमी समझ सकता है जो स्वयं खिलाड़ी हो या खेल प्रेमी हो। उनके लिये यह आयोजन गुलामी के तमाश से अधिक कुछ नहीं है
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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